20 अक्टूबर 2008: कहते हैं कि जिस दुआ में शब्दों का भार नहीं होता वो भगवान के दर पर सीधे दस्तक देती है. शायद आपकी एक मौन दुआ चमत्कार के लिए मुन्तजिर बेबस माँ की आँखों के आंसुओं के झरने को कुछ कम कर दे. सीता देवी के कमाऊ बेटे राजेन्द्र सिंह की ज़िन्दगी एक्सीडेंट के बाद से ही बेड पर सिमट कर रह गई है. इलाज के लिए यह परिवार अब तक लगभग ३ लाख रूपये खर्च कर चुका है. हाल ये है कि परिवार के पास हॉस्पिटल में भर्ती राजेन्द्र को डिस्चार्ज करवाने के लिए भी पैसा नहीं है. राजेन्द्र की पूरी देह जवाब दे चुकी है. उसकी अशक्त और निरीह आँखें इस मंजर को सिर्फ देख रही हैं. दोस्तों, मैंने तो शब्दों भरी दुआओं के ज़रिये खुशियों में जान फूंकने का प्रयास किया है. बस, ज़रूरत है आपकी एक मौन दुआ की...
शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008
मंगलवार, 8 अप्रैल 2008
दर्द बोला तो सुनाई देगा...
मुंह की बात तो सब सुन लेते हैं, दिल का दर्द जाने कौन?
आवाजों के बाजारों में, खामोशी को पहचाने कौन?
8 अप्रैल 2008: मैं आज फिर जुबिन हॉस्पीटल पहुंचा, जमीं पर टिमटिमाते उन तारों की छांव में सुकून तलाशने, जो अक्सर मां की गोद में ही मिलता है. वहां डेढ़ साल की बच्ची का दर्द कुछ ऐसा बोला कि उसकी आवाज अब तलक कानों गूंज रही है. वो स्पास्टिक है....नाम है इशिका. फिजियोथैरेपिस्ट की करवाई एक्सरसाइज़ के दर्द को भले ही वो जुबान से बयां नहीं कर पा रही हो मगर रूंधे गले से निकलने वाली उसकी चीत्कार मुझे हर उस दर्द का अहसास जरूर करवा रही थी, जो शायद मेरे दर्द से कहीं ज्यादा है.
आज अनकहे शब्दों में एक सच भी सुनाई दिया: इशिका की मां ने उसका फोटो देने से मना कर दिया. शायद उन्हें डर था कि मीडियामैन उनकी भावनाओं को कैश न कर लें.
शुक्रवार, 14 मार्च 2008
अहसास: निरीह के चुप्पी भरे दर्द का...
26 अप्रैल 2005: JOURNALISM का क्रेज और मेरा पहला अनुभव. शुरुआत हुई श्रीगंगानगर के रिड़मलसर के धोरों से. घर पर बिन-बताए मैं निकल पड़ा उस ओर जहां बेजुबान वन्य प्राणियों के प्यास से मारे जाने की सूचना थी. वैशाख मास की दोपहरी में मैं साथी भूपेंद्रसिंह दहेल के ट्रेक्टर पर रिड़मलसर से पांच किलोमीटर आगे बियावान धोरों में पहुंचा. नश्तर की तरह चुभती धूल भरी तेज-गर्म हवाएं मुझे अहसास दिला रहीं थी उन निरीह बेजुबानों के चुप्पी भरे दर्द का.
वो खामोश शब्द...
8 जुलाई 2005 : कुछ नया करने के जुनून में मैं निकल पड़ा उस परिवार को ढूंढने, जो `मुखिया´ की शहादत के बावजूद गुमनामियों के अंधेरों में कहीं खोया था. आंखों में गमों का समंदर, होठों पर पीड़ा और माथे पर चिंता की लकीरें. हाल-ए-बयां था शहीद एएसआई रामधन की पत्नी नानची देवी का, जिन्हें पति की शहादत पर फखर तो है मगर सरकारी बेरुखी का गुस्सा भी चेहरे पर साफ नजर आता था. मैं स्टोरी कंप्लीट कर चुका था। बाकी थी तो सिर्फ नानची देवी की फोटो. फोटोग्राफर को साथ लिए मैं अगले ही दिन शहीद के घर पहुंचा. शहीद की तस्वीर से बात करती उनकी पत्नी. उस दिन मुझे पहली बार सुनाई दिए वो खामोश शब्द, जिन्हें मैं शायद उससे पहले कभी नहीं सुन पाया था.
हौसलों के हाथ-पैर...
बिनु पग चले, सुने बिनु काना, कर बिनु कर्म, करे विधि नाना.
यह चौपाई निराकार BRAMHA के लिए लिखी गई है लेकिन लगता है ईमानदार हौसले से मिलने वाली अचूक सफलता में भी इसी BRAMHA का अंश आ जाता है. तभी तो हौसले को हाथ-पैर बनाकर ब्राजील की यह बच्ची आकर्षक नृत्य कर रही है. दृश्य ब्राजील के शहर सॉओ पॉलो में शनिवार को आयोजित सांबा स्कूल परेड का. -एपी
यह चौपाई निराकार BRAMHA के लिए लिखी गई है लेकिन लगता है ईमानदार हौसले से मिलने वाली अचूक सफलता में भी इसी BRAMHA का अंश आ जाता है. तभी तो हौसले को हाथ-पैर बनाकर ब्राजील की यह बच्ची आकर्षक नृत्य कर रही है. दृश्य ब्राजील के शहर सॉओ पॉलो में शनिवार को आयोजित सांबा स्कूल परेड का. -एपी
सोमवार, 3 मार्च 2008
मेरी नि:शक्तता...
मैं तरुण शर्मा, अंध विद्यालय के सत्संग हॉल में खड़ा हूं और सुन रहा हूं चुप की आवाज को बातें करते. ऑकेजन है अनाथ मूक-बधिर किशन (कृष्ण) और अंकिता (रुकमणि) का शादी समारोह. खुशी का माहौल और बहुत से बाराती-घाराती. भीड़-भाड़-चहल-पहल के बीच दोनों खामोश चेहरे कुछ भी सुन पाने मे अक्षम लग रहे हैं, मगर शायद वो समझ रहे हैं इक-दूजे की धड़कनों की बातें. एक बार फिर मैं उस जहां में पहुंच गया, जहां खुद को नि:शक्त महसूस कर रहा था. आज मेरा जन्मदिन भी था और ऐसा CELEBRATION कभी नहीं हुआ और शायद इन फ्यूचर कभी हो भी ना.
रविवार, 24 फ़रवरी 2008
गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008
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