गुरुवार, 1 नवंबर 2012

संस्कारों की घाटी और मैं...

संस्कारों की घाटी में मैं नि:शब्द, चुप को सुनता हुआ,
सपने अनकहे शून्य मन में बुनता हुआ...
यहां अजनबी मुस्कुराहटें भी बोलती हैं,
दिल के भाव चेहरे से तोलती हैं...
''कल्प'' वृक्ष की छांव में, शब्द और तर्कों के गांव में...
न पैसों की भागमभाग है, न ईर्ष्या की धधकती आग है...
यहां का स्वागत ''नायाब'' है, ''हर्ष'' भरी ''भावना'' को आदाब है...
''हेमंत'' की हिम्मत से बंधी आस है,
यूं लगा लंबे सफर में वो आसपास है...
जीवन के ''आधार'' को यहां महसूस किया है,
अधूरा सा रहा बचपन फिर से जीया है...
प्रकृति के ''प्रांगण'' में सच के ''सोपान'' हैं,
''शिखर'' पर पहुंचने का हमें मान है...

तरुण शर्मा, नि:शब्द
डीएनर्इ, श्रीगंगानगर

Poem Published: Inhouse Magazine BHASKAR SAMVAAD (Edition October-12)...
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