गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

प्रीत भरे रिश्ते

यूं लग रहा है जैसे अंगुलियों की पोरों ने अब सांस लेना बंद कर दिया है। तभी शायद कुछ लिख नहीं पा रहा हूं। आंखों के सामने कितने ही रिश्ते 'विदा' हुए, मगर आंखों में जमा नीर कभी नहीं छलका। मेरे दर्द ने सिखाया था अंगुलियों को सांस लेना। आज उसी ने ही फिर से कुछ कहा है-
प्रीत भरे रिश्ते
कैसे भूलेगी वो घर और बाहर लगे नीम के उस पेड़ का गठजोड़।
कमर के बल सी मुड़ती गली का वो मोड़।
पिया से मिलन की खुशी है जेहन में,
मगर आंखों में टीस भी है इस घर से जुदा होने की,
जहां से शुरू हुआ था ख्वाबों का छोटा सा संसार।
आज सोचा है उसने कि अक्सर क्यों रोती है दुल्हन विदा होने पर।
परिवार के यादगार उपहार
मां-अनुभवी आंखों से देखता 'चश्मा' उसे सौंपा है, जीवन है नदी और तू इक नौका है। सुख-दुख तो जैसे दिन-रात है, संस्कारों की गठरी ही मां की सौगात है।
पिता-अंगुली पकड़कर चलना सीखी वालिद की, तब सीखी थी समाज के साथ कदमताल करना। विश्वास और 'मैं हूँ तो' ये एहसास, पिता का तोहफा है।
भाई-उसकी गुस्से से भरी डांट-डपट में भी प्यार की हूक, जैसे पुराने किसी जख्म पर भावना भरी फूँक। ऊपर से कठोर मगर मन में बेइंतहा प्यार है, यही भाई का उपहार है।
बहन-तेरी आंख के 'आईने' में ही देखकर संवरी हूं हरदम। याद आएगा वो रुलाना, रूठ जाना और फिर खुद ही मनाना। साथ ले जाना मत भूलना, यादों का ये नजराना।
...और मैं-शब्दों के जहां में नि:शब्द हूं मैं, चुप को सुनता हुआ। शायद घर के बाहर खड़े नीम के पेड़ की तरह। बस एक ही प्रश्न लिए कि जग की रीत है बहनों को विदा करना। वे ही क्यों घर छोड़कर पराई हो जाती हैं?

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

खुशियों के नहीं होते पांव

लंदन. यह पांच साल की ऐली चैलिस है। इसे कार्बन फाइबर से बने फ्लेक्सिबल पांव लगाए गए हैं। पूर्वी इंग्लैंड के एसेक्स में रहने वाली ऐली जब 16 माह की थी तो उसे दिमागी बुखार (मैनिनजाइटिस) हो गया। इस बीमारी के बाद उसकी जान तो बचा ली गई, लेकिन हाथ और घुटनों के नीचे से पांव काटने पड़े। उसे शुरुआत में प्रोस्थेटिक हाथ और पैर लगाए गए, लेकिन ये इतने तकलीफदेह थे कि वह इन्हें दिनभर में महज 20 मिनट ही लगाकर रख सकती थी। इन फ्लेक्स-रन फीट से वह न केवल आराम से चल-फिर सकती है, बल्कि दौड़ भी लगा लेती है।