गुरुवार, 1 नवंबर 2012

संस्कारों की घाटी और मैं...

संस्कारों की घाटी में मैं नि:शब्द, चुप को सुनता हुआ,
सपने अनकहे शून्य मन में बुनता हुआ...
यहां अजनबी मुस्कुराहटें भी बोलती हैं,
दिल के भाव चेहरे से तोलती हैं...
''कल्प'' वृक्ष की छांव में, शब्द और तर्कों के गांव में...
न पैसों की भागमभाग है, न ईर्ष्या की धधकती आग है...
यहां का स्वागत ''नायाब'' है, ''हर्ष'' भरी ''भावना'' को आदाब है...
''हेमंत'' की हिम्मत से बंधी आस है,
यूं लगा लंबे सफर में वो आसपास है...
जीवन के ''आधार'' को यहां महसूस किया है,
अधूरा सा रहा बचपन फिर से जीया है...
प्रकृति के ''प्रांगण'' में सच के ''सोपान'' हैं,
''शिखर'' पर पहुंचने का हमें मान है...

तरुण शर्मा, नि:शब्द
डीएनर्इ, श्रीगंगानगर

Poem Published: Inhouse Magazine BHASKAR SAMVAAD (Edition October-12)...
About Dainik Bhaskar School Of Media Education, Sanskaar Valley Campus, Bhopal...

शुक्रवार, 18 मई 2012

आप सबसे कुट्टी, नहीं करूंगी बात

बेटी की भावना कहता मैं नि:शब्द
एक अजन्मी बेटी...
मां, जब तुमने कहा था पापा से-गुड न्यूज है, सबके चेहरे खिलखिला उठे थे।
दादी ने तो स्वेटर भी बुनना शुरू कर दिया था। दद्दा जी कहने लगे थे-नाम राज, रवि या दिव्यांश ही रखेंगे।
मगर क्यों ये भूल गए कि तुम्हारा अंश कोई नव्या या परी भी हो सकती है। हर किसी को क्यों बेटा ही चाहिए। मैं जीना चाहती थी, दुनिया देखना चाहती थी, तेरी पलकों पर बैठना चाहती थी मगर मुझे नाले में बहा दिया गया। आखिर क्यों?
मां, तू अपने महंगे कपड़ों को भी सहेज कर रखती है हमेशा मगर क्यों तूने मुझे बेजा सामान की तरह गंदगी में फेंक दिया। सास-बहू के सीरियल में तू इतनी मशगूल हो गई कि 'सत्यमेव जयते' का सत्य तुझे सुनाई ही न दिया। मां तू भी जिम्मेदार है मेरे कत्ल की।
कलेक्टर सा'ब, बंद कमरों में बैठकें होती हैं, निर्देश दिए जाते हैं, आदेश होते हैं लेकिन कोख के कत्ल फिर भी नहीं रुकते। एसडीएम बाबू भी आते हैं, चाय-नाश्ता कर बैठकों के भाषण सुन चले जाते हैं। मेरा सवाल है-इन सबके बावजूद क्यों जारी है ये कत्ल-ए-आम। सोचिए जरा।
सीएमएचओ सर, स्वास्थ्य महकमे की क्या जिम्मेदारी है? यहीं के किसी 'कत्लगाह' में मुझे बलि चढ़ा दिया गया और सभी आंख मूंदे बैठे रहे। मेरी चीख क्यों नहीं सुनी किसी ने।
डॉक्टर अंकल, आपने पैसों के लिए मेरी जान ले ली। एक ही पल में क्यों आप 'भगवान' से 'जल्लाद' बन गए। यह करते हुए क्यों आपको अपनी बेटी का चेहरा नजर नहीं आया। उसकी प्यारी मुस्कान कैसे भूल गए?
नेताजी, ये पेड़ जब से कटकर कुर्सी हुए हैं, बगीचे के धर्म ही भूल गए हैं। राजनीति के गलियारों में फूलों की महक लेते इनके नथुनों तक कैसे 'नन्ही लाश' की बदबू नहीं पहुंचती। जिम्मेदार आप भी हैं।
...और आप, आप सब भी जिम्मेदारी से मुंह नहीं फेर सकते। अभी तो मेरा ही कत्ल हुआ है अगर यह हत्यारी कैंची यूं ही कोख पर चलती रही तो वह दिन भी आ जाएगा जब बेटियों की आवाज सुनने को आप सबके कान तरस जाएंगे। सुनाई देगी तो सिर्फ चीखें।
 फिलहाल, आप सबसे कुट्टी, नहीं करूंगी बात।