सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

सुकून, चुप की आवाज सुनने का

श्रीगंगानगर का अंध विद्यालय आज भी 'मौन' है। 30 साल का हो चुका है। उम्र के साथ उसका 'शरीर' (कैंपस) तो बढ़ा ही है। रंग-रूप (बिल्डिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर) भी निखर गया है। अरसा हो गया यहां नहीं आ पाया। आज फिर मैं यहां चुप की आवाजों को सुनने के लिए पहुंचा हूं। बनावटी इंसानी आवाजें सुन-सुनकर ऊब गया हूं। मंच के पीछे बच्चों को टटोलने में लगा हूं। दिल तो रोज कीतरह धड़क रहा है, मगर धीमी-धीमी चलती लंबी सांसों में अजब सा सुकून महसूस कर रहा हूं।
काश! हम सभी अंधे हो जाएं...
हाथों में हाथ डाले एक मानव शृंखला चले जा रही है। काले चश्मे लगाए ये बच्चे एक-दूजे का सहारा बने हैं। वो देख नहीं सकते। मैं देख सकता हूं, मगर मेरे हाथ खाली हैं। क्योंकि मैं देख सकता हूं। सोचता हूं-काश! सब अंधे हो जाएं।
उनका गीत 'इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना' दिल को छू गया। समझ नहीं आ रहा था-एक तरफ हम 'सर्वशक्तिमान' बनने की होड़ में हैं और ये नि:शक्त बच्चे बस विश्वास बरकरार रखने के लिए ही शक्ति क्यो मांग रहे हैं? ...हे भगवान, इन्हें शक्ति दे, इन्हें शक्ति दे। इन्हें सर्वशक्तिमान बना दे।
...शोर बहुत है
उसका नाम नहीं पता। पूछा भी नहीं। जुबां खामोश मगर शरारती आंखें और चेहरे के भाव खूब 'शोर' मचा रहे हैं। स्टेज पर परफॉर्मेंस के लिए बेताब उस मूक-बधिर लड़की के पैर थिरक रहे हैं। मालूम नहीं कौनसा संगीत उसको सुनाई दे रहा है? मैं भी वही संगीत सुनना चाहता हूं, मगर सुन नहीं पा रहा। शायद शोर बहुत है।