रविवार, 30 मार्च 2014

हर-हर मोदी से हिल गया कैलाश

विशेष जांच करने पृथ्वी लोक पहुंचे नारद मुनि की एक्सक्लूसिव रपट

सीन-1, कैलाश पर्वत, शिवा इस्टेट
तपस्या में लीन रहने वाले सृष्टि के संघारक भगवान शिव ध्यान की मुद्रा में बैठे हैं, मगर एक शोर है, जो उन्हें एकाग्र नहीं होने दे रहा। हर-हर मोदी... हर-हर मोदी... यह आवाजें आखिर क्यों आ रही हैं? मैं कहां हूं... महादेव कहां हैं? तंद्रा टूटी, जैसे कोई दुस्वप्र देखा हो। 
भगवान शिव सोच रहे हैं : कौन है यह मोदी... मानव है... कोई अवतार तो नहीं? मनुष्य अवतार में कोई देव होता तो मुझे सूचना अवश्य मिल ही जाती है। काश! मैंने हर-हर महादेव का कॉपीराइट करवा लिया होता।
(सोचना जारी है)
"खैर, अब तो उसे बुलाना ही पड़ेगा।"

सीन-2, कैलाश पर्वत, ब्रह्म पुत्र नारद मुनि की एंट्री
नारायण, नारायण... देवों के देव... महादेव की जय हो।
मुझे याद किया प्रभु?
शिव : हां मुनिवर... मानव लोक से कुछ अजीब आवाजें सुनाई दे रही हैं। ऐसा लगता है मानो देवताओं का सिंहासन हिलाने की कोई साजिश रची जा रही हो। 
मुनिवर, आप ही सही रिपोर्ट दे सकते हैं। वहां के चैनलों और मीडिया का क्या भरोसा? आप पृथ्वी लोक जाएं और बताएं की आखिर यह मोदियापा है क्या?

(बता दें कि नारद सृष्टि के रचियता ब्रह्मा के पुत्र है, देव लोक के लिए सूचना एवं जनसंपर्क का काम उन्हीं के जरिए होता है। एक्शन प्लान के लिए टीमें अलग हैं।)

सीन-3, काशी नगरी, नारद मुनि लाइव (कैलाश पर्वत को)
12 ज्योतिर्लिंग में से एक काशी, यहां की रंगत बदली सी है। आसमान से ऐसा लग रहा है, जैसे किसी कैनवास पर लाल-नीले और केसरिया रंग के छींटे मार दिए हों। थोड़ा क्लोज-अप व्यू लिया तो समझ में आया। 
नारद : अरे, यह तो पोस्टर-बैनर हैं। ओह, यहां तो चुनाव हैं। हर पांच साल में होते हैं, मगर इस बार कुछ तो अलग है। 

सीन-4, अस्सी की अड़ी
एक ग्रुप में चाय की चुस्कियों के साथ चुनावी चर्चा जारी है। नारद भी मानव वेश में मौजूद है। 
पहला आदमी : मोदी की हवा तो है भइया, जीत ही जाएगा।
दूसरा : आप तो रहने दो। केजरीवाल देखना टक्कर देगा। 
नारद : यह मोदी बहुत पावरफुल है क्या?
पहला : भइया, कोनो लोक से आए हो, मोदी को नहीं जानते? उसने तो पार्टी के भीष्म को ही साइडलाइन कर दिया। भीष्म क्यों, सभी बुजुर्ग और बागी बाहर हो रहे हैं। उसे रोक पाना असंभव है। अब देख लो, हर-हर महादेव की जगह, हर-हर मोदी हो गए हैं।
दूसरा : हां, देखो तो, जिसका भाषण दीवारों पर खड़े होकर सुनता था, जिससे सियासी पाठ सीखा, उसी को ही किनारे कर दिया। ये तो गलत है। अनुभव की कद्र तो होनी ही चाहिए। 
नारद (सोचते हुए) : ओह, बड़ा खतरनाक मनुष्य है। महादेव की चिंता वाजिब थी। 
नारद : मुझे लगता है ऐसे भगवान की जगह खुद का नाम लगाना गलत है।
पहला : भइया, यहां सही है क्या? अभी दो दिन पहले ही दुर्गा माता से तुलना कर दी है पोस्टर में। नारी मंत्र की जगह मोदी मंत्र भी दे दिया। 
या मोदी सर्वभूतेषु... राष्ट्ररूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै: नमस्तस्यै: नमस्तस्यै: 
नमो नम:...
ये तो चुनावी हथकंडे हैं। वैसे हर-हर मोदी पर तो रोक लग ही गई। चलो अच्छा ही हुआ। 
नारद : मगर यहां निर्वाचन आयोग भी तो है, जो चुनावों में आचार संहिता का पालन कराता है। वो कुछ क्यों नहीं करता? दंड का अधिकार तो उन्हें है ही। 
पहला : बाबू, नए लगते हो यहां... आयोग के खुद के हाथ बंधे हैं। नोटिस दे दिया जाता है बस। पिछली बार वरुण गांधी ने पीलीभीत से भी तो भडक़ाऊ बयान दिया था। का हुआ? सब खेल हो जाते हैं।
दूसरा : अरे, दूर क्यों जाते हो। अभी कांग्रेस वाले भइया इमरान को ही देख लो। बोल वचन किए, अब जेल गए हैं। हीरो तो बन ही गए। बाद में क्या होता है? खैर, महादेव सद्बुद्धि दे सबको।

सीन-5, कैलाश पर्वत, शिवा हाउस
नारद 3 दिन के अपने काशी प्रवास के बाद कैलाश लौटे हैं। अपनी लिखित रपट उन्होंने महादेव को सौंपी है। महादेव उसे ही पढ़ रहे हैं।

महादेव प्रभु

भारतीय राजनीति केे अक्सर चुनावों में उम्मीदवार स्वांग रचते हैं। पांच साल तक कुंभकरणी नींद में सोए रहते हैं। फिर अचानक प्रकट हो जाते हैं। इस सीजन में तो हद ही हो जाती है। यह कभी छलिया बनकर जनता को ठगते हैं तो कभी इमोशनल अत्याचार से। हे दीन बंधु, इसमें गलती इन नेताओं की ही नहीं है, कार्यकर्ताओं की है, जो नंबर बनाने के चक्कर में इतना मक्खन लगाते हैं कि मथुरा में भी चिकनाई कम पड़ जाती है। किसी को नारों में भगवान बना दिया जाता है, तो किसी को पोस्टरों में मां दुर्गा। जिम्मेदार यहां की निरीह जनता की भी है, जो धर्म-जाति-मजहब के नाम पर इनकी चिकनी बातों में आ जाती है और पिछले पांच साल का लेखा-जोखा चंद दिनों में ही भूल जाती है। सब कुछ जानते हुए भी इंसान को भगवान का दर्जा देने में भी गुरेज नहीं करती। प्रभु, इस मायावी लोक में मान-सम्मान की बातें भी गौण हो गई हैं। जीत-हार के इस युद्ध की कोई हद नहीं है। इस सियासी रण में कोई भी उम्मीदवार जीते, मगर हार हमेशा मतदाताओं की ही होती है। हर बार, बार-बार...

आपका,
नारद

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

संस्कारों की घाटी और मैं...

संस्कारों की घाटी में मैं नि:शब्द, चुप को सुनता हुआ,
सपने अनकहे शून्य मन में बुनता हुआ...
यहां अजनबी मुस्कुराहटें भी बोलती हैं,
दिल के भाव चेहरे से तोलती हैं...
''कल्प'' वृक्ष की छांव में, शब्द और तर्कों के गांव में...
न पैसों की भागमभाग है, न ईर्ष्या की धधकती आग है...
यहां का स्वागत ''नायाब'' है, ''हर्ष'' भरी ''भावना'' को आदाब है...
''हेमंत'' की हिम्मत से बंधी आस है,
यूं लगा लंबे सफर में वो आसपास है...
जीवन के ''आधार'' को यहां महसूस किया है,
अधूरा सा रहा बचपन फिर से जीया है...
प्रकृति के ''प्रांगण'' में सच के ''सोपान'' हैं,
''शिखर'' पर पहुंचने का हमें मान है...

तरुण शर्मा, नि:शब्द
डीएनर्इ, श्रीगंगानगर

Poem Published: Inhouse Magazine BHASKAR SAMVAAD (Edition October-12)...
About Dainik Bhaskar School Of Media Education, Sanskaar Valley Campus, Bhopal...

शुक्रवार, 18 मई 2012

आप सबसे कुट्टी, नहीं करूंगी बात

बेटी की भावना कहता मैं नि:शब्द
एक अजन्मी बेटी...
मां, जब तुमने कहा था पापा से-गुड न्यूज है, सबके चेहरे खिलखिला उठे थे।
दादी ने तो स्वेटर भी बुनना शुरू कर दिया था। दद्दा जी कहने लगे थे-नाम राज, रवि या दिव्यांश ही रखेंगे।
मगर क्यों ये भूल गए कि तुम्हारा अंश कोई नव्या या परी भी हो सकती है। हर किसी को क्यों बेटा ही चाहिए। मैं जीना चाहती थी, दुनिया देखना चाहती थी, तेरी पलकों पर बैठना चाहती थी मगर मुझे नाले में बहा दिया गया। आखिर क्यों?
मां, तू अपने महंगे कपड़ों को भी सहेज कर रखती है हमेशा मगर क्यों तूने मुझे बेजा सामान की तरह गंदगी में फेंक दिया। सास-बहू के सीरियल में तू इतनी मशगूल हो गई कि 'सत्यमेव जयते' का सत्य तुझे सुनाई ही न दिया। मां तू भी जिम्मेदार है मेरे कत्ल की।
कलेक्टर सा'ब, बंद कमरों में बैठकें होती हैं, निर्देश दिए जाते हैं, आदेश होते हैं लेकिन कोख के कत्ल फिर भी नहीं रुकते। एसडीएम बाबू भी आते हैं, चाय-नाश्ता कर बैठकों के भाषण सुन चले जाते हैं। मेरा सवाल है-इन सबके बावजूद क्यों जारी है ये कत्ल-ए-आम। सोचिए जरा।
सीएमएचओ सर, स्वास्थ्य महकमे की क्या जिम्मेदारी है? यहीं के किसी 'कत्लगाह' में मुझे बलि चढ़ा दिया गया और सभी आंख मूंदे बैठे रहे। मेरी चीख क्यों नहीं सुनी किसी ने।
डॉक्टर अंकल, आपने पैसों के लिए मेरी जान ले ली। एक ही पल में क्यों आप 'भगवान' से 'जल्लाद' बन गए। यह करते हुए क्यों आपको अपनी बेटी का चेहरा नजर नहीं आया। उसकी प्यारी मुस्कान कैसे भूल गए?
नेताजी, ये पेड़ जब से कटकर कुर्सी हुए हैं, बगीचे के धर्म ही भूल गए हैं। राजनीति के गलियारों में फूलों की महक लेते इनके नथुनों तक कैसे 'नन्ही लाश' की बदबू नहीं पहुंचती। जिम्मेदार आप भी हैं।
...और आप, आप सब भी जिम्मेदारी से मुंह नहीं फेर सकते। अभी तो मेरा ही कत्ल हुआ है अगर यह हत्यारी कैंची यूं ही कोख पर चलती रही तो वह दिन भी आ जाएगा जब बेटियों की आवाज सुनने को आप सबके कान तरस जाएंगे। सुनाई देगी तो सिर्फ चीखें।
 फिलहाल, आप सबसे कुट्टी, नहीं करूंगी बात।

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

मेरा EXCUSE ME और उसका SORRY

मेरे EXCUSE ME पर उसकी SORRY ने ऐसा कहर ढाया,
आंसू का एक कतरा मेरी आँख से बह आया...
उसकी आँखों में मैंने देखा एक सपना था,
अब कैसे कह दू की वो मेरा अपना था...
ऐसा लगता है कि बारिशों में पतंगे उड़ा रहा हूँ,
अपनी ही सोच में कु अनकहे रिश्ते निभा रहा हूँ...
मासूम चेहरा पढने में ज़रा सी भूल हुई,
वक़्त ने करवट ली, ज़िन्दगी यादो कि धूल हुई...
बात उससे करने का ख्वाब मेरा अधूरा रह गया,
दर्द उसकी ना का अब मैं पूरा सह गया...
गुनहगार तो बन चुका, इज़हार करके,
मुन्तजिर बना रहूँगा, अब इंतज़ार करके...

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

सुकून, चुप की आवाज सुनने का

श्रीगंगानगर का अंध विद्यालय आज भी 'मौन' है। 30 साल का हो चुका है। उम्र के साथ उसका 'शरीर' (कैंपस) तो बढ़ा ही है। रंग-रूप (बिल्डिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर) भी निखर गया है। अरसा हो गया यहां नहीं आ पाया। आज फिर मैं यहां चुप की आवाजों को सुनने के लिए पहुंचा हूं। बनावटी इंसानी आवाजें सुन-सुनकर ऊब गया हूं। मंच के पीछे बच्चों को टटोलने में लगा हूं। दिल तो रोज कीतरह धड़क रहा है, मगर धीमी-धीमी चलती लंबी सांसों में अजब सा सुकून महसूस कर रहा हूं।
काश! हम सभी अंधे हो जाएं...
हाथों में हाथ डाले एक मानव शृंखला चले जा रही है। काले चश्मे लगाए ये बच्चे एक-दूजे का सहारा बने हैं। वो देख नहीं सकते। मैं देख सकता हूं, मगर मेरे हाथ खाली हैं। क्योंकि मैं देख सकता हूं। सोचता हूं-काश! सब अंधे हो जाएं।
उनका गीत 'इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना' दिल को छू गया। समझ नहीं आ रहा था-एक तरफ हम 'सर्वशक्तिमान' बनने की होड़ में हैं और ये नि:शक्त बच्चे बस विश्वास बरकरार रखने के लिए ही शक्ति क्यो मांग रहे हैं? ...हे भगवान, इन्हें शक्ति दे, इन्हें शक्ति दे। इन्हें सर्वशक्तिमान बना दे।
...शोर बहुत है
उसका नाम नहीं पता। पूछा भी नहीं। जुबां खामोश मगर शरारती आंखें और चेहरे के भाव खूब 'शोर' मचा रहे हैं। स्टेज पर परफॉर्मेंस के लिए बेताब उस मूक-बधिर लड़की के पैर थिरक रहे हैं। मालूम नहीं कौनसा संगीत उसको सुनाई दे रहा है? मैं भी वही संगीत सुनना चाहता हूं, मगर सुन नहीं पा रहा। शायद शोर बहुत है।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

प्रीत भरे रिश्ते

यूं लग रहा है जैसे अंगुलियों की पोरों ने अब सांस लेना बंद कर दिया है। तभी शायद कुछ लिख नहीं पा रहा हूं। आंखों के सामने कितने ही रिश्ते 'विदा' हुए, मगर आंखों में जमा नीर कभी नहीं छलका। मेरे दर्द ने सिखाया था अंगुलियों को सांस लेना। आज उसी ने ही फिर से कुछ कहा है-
प्रीत भरे रिश्ते
कैसे भूलेगी वो घर और बाहर लगे नीम के उस पेड़ का गठजोड़।
कमर के बल सी मुड़ती गली का वो मोड़।
पिया से मिलन की खुशी है जेहन में,
मगर आंखों में टीस भी है इस घर से जुदा होने की,
जहां से शुरू हुआ था ख्वाबों का छोटा सा संसार।
आज सोचा है उसने कि अक्सर क्यों रोती है दुल्हन विदा होने पर।
परिवार के यादगार उपहार
मां-अनुभवी आंखों से देखता 'चश्मा' उसे सौंपा है, जीवन है नदी और तू इक नौका है। सुख-दुख तो जैसे दिन-रात है, संस्कारों की गठरी ही मां की सौगात है।
पिता-अंगुली पकड़कर चलना सीखी वालिद की, तब सीखी थी समाज के साथ कदमताल करना। विश्वास और 'मैं हूँ तो' ये एहसास, पिता का तोहफा है।
भाई-उसकी गुस्से से भरी डांट-डपट में भी प्यार की हूक, जैसे पुराने किसी जख्म पर भावना भरी फूँक। ऊपर से कठोर मगर मन में बेइंतहा प्यार है, यही भाई का उपहार है।
बहन-तेरी आंख के 'आईने' में ही देखकर संवरी हूं हरदम। याद आएगा वो रुलाना, रूठ जाना और फिर खुद ही मनाना। साथ ले जाना मत भूलना, यादों का ये नजराना।
...और मैं-शब्दों के जहां में नि:शब्द हूं मैं, चुप को सुनता हुआ। शायद घर के बाहर खड़े नीम के पेड़ की तरह। बस एक ही प्रश्न लिए कि जग की रीत है बहनों को विदा करना। वे ही क्यों घर छोड़कर पराई हो जाती हैं?

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

खुशियों के नहीं होते पांव

लंदन. यह पांच साल की ऐली चैलिस है। इसे कार्बन फाइबर से बने फ्लेक्सिबल पांव लगाए गए हैं। पूर्वी इंग्लैंड के एसेक्स में रहने वाली ऐली जब 16 माह की थी तो उसे दिमागी बुखार (मैनिनजाइटिस) हो गया। इस बीमारी के बाद उसकी जान तो बचा ली गई, लेकिन हाथ और घुटनों के नीचे से पांव काटने पड़े। उसे शुरुआत में प्रोस्थेटिक हाथ और पैर लगाए गए, लेकिन ये इतने तकलीफदेह थे कि वह इन्हें दिनभर में महज 20 मिनट ही लगाकर रख सकती थी। इन फ्लेक्स-रन फीट से वह न केवल आराम से चल-फिर सकती है, बल्कि दौड़ भी लगा लेती है।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

इक मौन दुआ...

20 अक्टूबर 2008: कहते हैं कि जिस दुआ में शब्दों का भार नहीं होता वो भगवान के दर पर सीधे दस्तक देती है. शायद आपकी एक मौन दुआ चमत्कार के लिए मुन्तजिर बेबस माँ की आँखों के आंसुओं के झरने को कुछ कम कर दे. सीता देवी के कमाऊ बेटे राजेन्द्र सिंह की ज़िन्दगी एक्सीडेंट के बाद से ही बेड पर सिमट कर रह गई है. इलाज के लिए यह परिवार अब तक लगभग ३ लाख रूपये खर्च कर चुका है. हाल ये है कि परिवार के पास हॉस्पिटल में भर्ती राजेन्द्र को डिस्चार्ज करवाने के लिए भी पैसा नहीं है. राजेन्द्र की पूरी देह जवाब दे चुकी है. उसकी अशक्त और निरीह आँखें इस मंजर को सिर्फ देख रही हैं. दोस्तों, मैंने तो शब्दों भरी दुआओं के ज़रिये खुशियों में जान फूंकने का प्रयास किया है. बस, ज़रूरत है आपकी एक मौन दुआ की...

मंगलवार, 8 अप्रैल 2008

दर्द बोला तो सुनाई देगा...

मुंह की बात तो सब सुन लेते हैं, दिल का दर्द जाने कौन?
आवाजों के बाजारों में, खामोशी को पहचाने कौन?
8 अप्रैल 2008: मैं आज फिर जुबिन हॉस्पीटल पहुंचा, जमीं पर टिमटिमाते उन तारों की छांव में सुकून तलाशने, जो अक्सर मां की गोद में ही मिलता है. वहां डेढ़ साल की बच्ची का दर्द कुछ ऐसा बोला कि उसकी आवाज अब तलक कानों गूंज रही है. वो स्पास्टिक है....नाम है इशिका. फिजियोथैरेपिस्ट की करवाई एक्सरसाइज़ के दर्द को भले ही वो जुबान से बयां नहीं कर पा रही हो मगर रूंधे गले से निकलने वाली उसकी चीत्कार मुझे हर उस दर्द का अहसास जरूर करवा रही थी, जो शायद मेरे दर्द से कहीं ज्यादा है.
आज अनकहे शब्दों में एक सच भी सुनाई दिया: इशिका की मां ने उसका फोटो देने से मना कर दिया. शायद उन्हें डर था कि मीडियामैन उनकी भावनाओं को कैश न कर लें.

शुक्रवार, 14 मार्च 2008

अहसास: निरीह के चुप्पी भरे दर्द का...

26 अप्रैल 2005: JOURNALISM का क्रेज और मेरा पहला अनुभव. शुरुआत हुई श्रीगंगानगर के रिड़मलसर के धोरों से. घर पर बिन-बताए मैं निकल पड़ा उस ओर जहां बेजुबान वन्य प्राणियों के प्यास से मारे जाने की सूचना थी. वैशाख मास की दोपहरी में मैं साथी भूपेंद्रसिंह दहेल के ट्रेक्टर पर रिड़मलसर से पांच किलोमीटर आगे बियावान धोरों में पहुंचा. नश्तर की तरह चुभती धूल भरी तेज-गर्म हवाएं मुझे अहसास दिला रहीं थी उन निरीह बेजुबानों के चुप्पी भरे दर्द का.

वो खामोश शब्द...

8 जुलाई 2005 : कुछ नया करने के जुनून में मैं निकल पड़ा उस परिवार को ढूंढने, जो `मुखिया´ की शहादत के बावजूद गुमनामियों के अंधेरों में कहीं खोया था. आंखों में गमों का समंदर, होठों पर पीड़ा और माथे पर चिंता की लकीरें. हाल-ए-बयां था शहीद एएसआई रामधन की पत्नी नानची देवी का, जिन्हें पति की शहादत पर फखर तो है मगर सरकारी बेरुखी का गुस्सा भी चेहरे पर साफ नजर आता था. मैं स्टोरी कंप्लीट कर चुका था। बाकी थी तो सिर्फ नानची देवी की फोटो. फोटोग्राफर को साथ लिए मैं अगले ही दिन शहीद के घर पहुंचा. शहीद की तस्वीर से बात करती उनकी पत्नी. उस दिन मुझे पहली बार सुनाई दिए वो खामोश शब्द, जिन्हें मैं शायद उससे पहले कभी नहीं सुन पाया था.

हौसलों के हाथ-पैर...

बिनु पग चले, सुने बिनु काना, कर बिनु कर्म, करे विधि नाना.
यह चौपाई निराकार BRAMHA के लिए लिखी गई है लेकिन लगता है ईमानदार हौसले से मिलने वाली अचूक सफलता में भी इसी BRAMHA का अंश आ जाता है. तभी तो हौसले को हाथ-पैर बनाकर ब्राजील की यह बच्ची आकर्षक नृत्य कर रही है. दृश्य ब्राजील के शहर सॉओ पॉलो में शनिवार को आयोजित सांबा स्कूल परेड का. -एपी

सोमवार, 3 मार्च 2008

मेरी नि:शक्तता...

मैं तरुण शर्मा, अंध विद्यालय के सत्संग हॉल में खड़ा हूं और सुन रहा हूं चुप की आवाज को बातें करते. ऑकेजन है अनाथ मूक-बधिर किशन (कृष्ण) और अंकिता (रुकमणि) का शादी समारोह. खुशी का माहौल और बहुत से बाराती-घाराती. भीड़-भाड़-चहल-पहल के बीच दोनों खामोश चेहरे कुछ भी सुन पाने मे अक्षम लग रहे हैं, मगर शायद वो समझ रहे हैं इक-दूजे की धड़कनों की बातें. एक बार फिर मैं उस जहां में पहुंच गया, जहां खुद को नि:शक्त महसूस कर रहा था. आज मेरा जन्मदिन भी था और ऐसा CELEBRATION कभी नहीं हुआ और शायद इन फ्यूचर कभी हो भी ना.

रविवार, 24 फ़रवरी 2008

उड़ान का आगाज...

एक छोटी सी सोच का नतीजा नि:शक्तजनों के लिए मेरी पहली सीरीज `उड़ान हौसले की´ और सीरीज का पहला हीरो बना एक हाथ के सहारे चांद को छूने की हसरत रखने वाला दाएं हाथ से नि:शक्त वसीम जाफर.

तारों का अनमोल जहां...

बोलते इशारे, सुनती आंखें और बात करती दिल की धड़कन. ये है SPASTIC बच्चों का एक अलग जहां श्रीगंगानगर का जुबिन हॉस्पीटल.

अहसास के गुरु...

श्रीगंगानगर के श्री जगदंबा मूक-बधिर-अंध विद्यालय के प्रथम गुरु अमरनाथ गर्ग, जिन्होंने ताउम्र बच्चों को सिखाया अहसास की ज्योत जलाना.

अटल धर्मवीर...

बेबसी के तूफानों को दिए सा ओजस्वी तेज लिए अटल खड़ा धर्मवीर जूडो में नेशनल चैंपियन रह चुका है .
धर्मवीर मूक-बधिर है.

मिशन पॉसिबल...

रमेश कुमार का हर दिन मिशन की तरह है. 24 साल से केंद्र सरकार का मुलाजिम रमेश दृष्टिहीन है.

हुनर की सरगम, भूली सारे गम...

राजस्थानी संगीत पर थिरकती श्वेता खुद उस संगीत को सुन पाने में अक्षम है। फिर भी वो एक उम्दा कलाकार की तरह स्टेज पर शानदार प्रस्तुति देती है।

हिम्मत से उजास...

हादसे से अंधियारा होने के बावजूद हिम्मत से जीवन में उजास किया हनी कटारिया ने.

जुनून के पैर, लक्ष्य की दौड़...

खुद पर यकीन से लक्ष्य की ओर दौड़ता शख्स नरेंद्र पाईवाल.

ठोकरों से चलना सीखा...

श्रीगंगानगर के कलेक्ट्रेट में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी नानकराम दृष्टिहीन है. फिर भी वो यहां के चप्पे-चप्पे से वाकिफ है.

`भारत´ को सलाम...

पैरों पर तो सभी नाचते हैं मगर हाथों पर थिरकती प्रतिभा है हनुमानगढ़ के एकलव्य आश्रम का भारत.

जग जीतने का जुनून-जगसीर...


होंठ खामोश मगर मन:स्थिति नदी की तरह. ओलिंपिक चैंपियन बनना ही एकमात्र लक्ष्य.

शह और मात...

जीवन रूपी शतरंज की बिसात पर नि:शक्तता के वजीर को मात दी परशुराम ने.

टूटे सपनों को जोड़ा...

ख्वाबों के महल में हंसता-खेलता आनंद का परिवार. और फिर हादसों के मलबे में दबकर रह गए सपने‡

थमी नहीं उड़ान...

हादसे ने मनोज को तीन माह की नींद में सुला दिया. जब जागा तो आधी देह जवाब दे चुकी थी. मगर उड़ान थमी नहीं और आखिर जीत ही ली जिंदगी की जंग.

स्ट्रगलिंग मैन-राजेश...

पहले प्रकृति फिर गरीबी की मार ने राजेश को अभावों के भंवर में गोते मारने के लिए छोड़ दिया, लेकिन मेहनत से राजेश हाथ की रेखाओं पर जमीं धूल को बुहारने में जुटे हैं.

टॉपर अनिल पांडे...

लंबी दूरी का सफर तय करना ही अनिल पांडे का ध्येय है.

उलझन भरी जिंदगी...

अकाउंट्स की उलझनों को चुटकियों में सुलझाने वाले अनिल की जिंदगी में ऐसा मोड़ आया कि उनका जीवन ही उलझन बनकर रह गया.

सारा आकाश हमारा...

कहते हैं कि मंजिल की राहों में पड़ाव आते हैं, मगर लगातार चलने का हौसला रखने वाले जांबाजों के रास्तों में तो मंजिलें बेखौफ आती हैं. श्रीगंगानगर के श्री जगदंबा मूक-बधिर-अंध विद्यालय के सुमित सोनी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.

दृढ़ इच्छाशक्ति...

कभी गुस्से में बुदबुदाना तो कभी हंसी से खिलखिलाना. पल-पल बदलते चेहरे के भावों के पीछे है श्याम सुंदर का चंचल मन.

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

मैडल बॉय-जसवंत...

जसवंत-श्री जगदंबा मूक-बधिर-अंध विद्यालय की ओर से सर्वाधित पदक विजेता.

नाचे मयूरी...

एक पैर पर खड़ी श्वेता पांडे और उस पर उसका मयूरी की तरह नृत्य.

जुनून, जज्बा और जीत...

एथलेटिक्स ट्रैक का चैंपियन जितेंद्र (रिले दौड़-400 मीटर)

एक हाथ का साथ...

दो पैरों और एक हाथ के बगैर दुनिया जीतने का जज्बा.

गुंजायमान गुंजन...

गुंजन करता हौसलामंद हुनर गुंजन.

गगन-ट्रैक का बिंदास बाइकर...

एक हाथ से बाइक पर अलग तरह के स्टंट करने वाला गगन मनचंदा.