दिनभर दौड़े-भागे, चौका-चूल्हा संभाले, पसीने से तर नजर आती मेरी मां मेरी सलीके से भरी आवारगी पर, सबकुछ जान कर भी मुस्कराती मेरी मां जलता हूं जब भी अपनेआप में, मेरे आंसू अपनी आंखों से बहाती मेरी मां किताबों में जहां, कहां दिखता है, अनुभव के चश्मे से दुनिया दिखाती मेरी मां अंगुली पकड़कर चलना सीखा था वालिद की, समाज के साथ चलना सिखाती मेरी मां सीखता रहूं ताउम्र उन्हीं से मैं, मेरे जीने का आखिरी बहाना मेरी मां
इक लड़का है `वो´
एकांत में कहीं जी भरकर रोना चाहता है मां की गोद में सर रखकर सोना चाहता है मगर रोता है `वो´ तो रोती है मां भी शायद इसी बात से घबराता है `वो´ भी घुटन ही घुटन भरी है उसके शून्य से मन में जैसे एक ही राग हो किसी बियावान से वन में सब कहते हैं कि बहुत सुलझा हुआ है `वो´ मगर अपनी ही राहों में उलझा हुआ है `वो´ सुकून की तलाश में निकला है, जमीं के तारों की छांव में आवाजों के बाजारों से होता हुआ पहुंचा है खामोशी के गांव में चुप ही की तलाश में हरदम रहता है मौन सा सोचता है इस डगर पर साथी मिल जाए कौन सा अक्सर कहते हैं लोग कि `सनकी´ है `वो´ लगता है करता सिर्फ मन की है `वो´ जिंदगी की लहर में, बेखबर नदी सा बहना चाहता है उम्मीदों की सहर में, इतना ही सबको कहना चाहता है इक लड़का है `वो´
प्रीत भरे रिश्ते
कैसे भूलेगी वो घर और बाहर लगे नीम के उस पेड़ का गठजोड़। कमर के बल सी मुड़ती गली का वो मोड़। पिया से मिलन की खुशी है जेहन में, मगर आंखों में टीस भी है इस घर से जुदा होने की, जहां से शुरू हुआ था ख्वाबों का छोटा सा संसार। आज सोचा है उसने कि अक्सर क्यों रोती है दुल्हन विदा होने पर। परिवार के यादगार उपहार मां-अनुभवी आंखों से देखता 'चश्मा' उसे सौंपा है, जीवन है नदी और तू इक नौका है। सुख-दुख तो जैसे दिन-रात है, संस्कारों की गठरी ही मां की सौगात है। पिता-अंगुली पकड़कर चलना सीखी वालिद की, तब सीखी थी समाज के साथ कदमताल करना। विश्वास और 'मैं हूँ तो' ये एहसास, पिता का तोहफा है। भाई-उसकी गुस्से से भरी डांट-डपट में भी प्यार की हूक, जैसे पुराने किसी जख्म पर भावना भरी फूँक। ऊपर से कठोर मगर मन में बेइंतहा प्यार है, यही भाई का उपहार है। बहन-तेरी आंख के 'आईने' में ही देखकर संवरी हूं हरदम। याद आएगा वो रुलाना, रूठ जाना और फिर खुद ही मनाना। साथ ले जाना मत भूलना, यादों का ये नजराना। ...और मैं-शब्दों के जहां में नि:शब्द हूं मैं, चुप को सुनता हुआ। शायद घर के बाहर खड़े नीम के पेड़ की तरह। बस एक ही प्रश्न लिए कि जग की रीत है बहनों को विदा करना। वे ही क्यों घर छोड़कर पराई हो जाती हैं?
विडंबना
बेबाकी से बोलते शहर की ये खामोश बस्ती है सारा शहर गुजरता है यहां से नाक पर रूमाल तानकर अनदेखा कर देता है आंखों का सारा हाल जानकर कचरे की वादियों के `हिल स्टेशन´ में एक अबोध गुडि़या बसती है, घूमती है बैरंग चिट्ठी की तरह, खुद में ही हंसती है। मजबूर ममता ख्वाबों के पालने में ही उसे झूलाती है, जीवन के जीवंत सच की लोरियां ही गाकर सुनाती है। थोड़े से थोड़ा बेहतर की फिराक में मां झाड़ू-पोंछा करती है, अनसुलझे सवालों के जवाब में हरदम किस्मत का दम भरती है। अंजस भावनाएं उसकी, किस्मत मिलती है इन चमकदार बाजारों में, या फिर सौरमंडल के चमकते उन रोशन चांद-सितारों में। आज वक्त ने इन अशक्त आंखों में दुल्हन का ख्वाब सजाया है, मगर विडंबना, ससुराल भी ऐसी ही इक खामोश बस्ती में आया है। बेबाकी से बोलते शहर की ये खामोश बस्ती है।
सहाफी
सहाफियों का भी है अपना मुक्कमल जहां, हरइक कलम की अदा जुदा सी है। `कुछ´ शब्द बेचकर बनवाते हैं बेबसों से मकान, तो कुछ ने शब्दों में ही जिंदगी तराशी है। पेशेवर `कातिल´ कहो-तो क्या गलत होगा? हथियार हमारे कलम और शब्द हस्सासी है। बेदर्द शहर की दास्तां कहती खामोश बस्तियां, यहां आने वाली हर आदम-रूह प्यासी है। चुप्पी लिए चलती है बेखौफ `लाशें´ यहां, जिंदा रहकर भी जीना एक अय्याशी है।
सहाफी-पत्रकार हस्सासी-भावुकता जिंदा रहना भी एक अय्याशी है-जा़हिदा हिना
सोच
छोटी सी सोच ने एक सनक सी पैदा की है मन के मंदिर में कहीं विचारों को पनाह दी है दिल के ज्वालामुखी का लावा रह-रहकर उबलता रहता है जैसे अस्त होता सूरज कहीं न कहीं जलता रहता है सोच ने दी है दिशा मुझे और शायद आयाम भी चलना ही अब ध्येय है मेरा, नहीं चाहता आराम भी सपनों से सिरहाने पहुंचा, उनका आवारा कहना-गवारा लगता है आत्ममंथन की ओर मेरा पहला कदम, बेहद प्यारा लगता है घर से रोज निकलता हूं, इंसान बनने की चाह में `भगवान´ अक्सर बनते हैं यहां, हर गली-हर राह में
एक परिन्दा
एक परिन्दा उड़ रहा है, अनचाही दिशा में मुड़ रहा है दिशाहीन उड़ान का उसे भान है मगर हवा के हाथों में उसकी कमान है अकस्मात ही वो प्रतिकूल धाराओं से लड़ा है अपने पंखों का अस्तित्व बचाने को अड़ा है तिनका लिए चोंच में घोसला बनाना चाहता है `वो´ अपने होने की औकात सबको बताना चाहता है `वो´ साथियों ने कहा उसे प्रतिकूलता की ये सनक छोड़ दो या हौसले की उड़ान से हवाओं का गुरूर तोड़ दो उस परिन्दे की मानिन्द शायद उड़ रहा हूं मैं भी अनचाही दिशा की ओर मुड़ रहा हूं मैं भी एक परिन्दा उड़ रहा है, अनचाही दिशा की ओर मुड़ रहा है
...कोई...
मालूम नहीं दिल बेचैन क्यूं है मेरा शायद राह में फिर टकरा गया कोई पढ़ता रहा उसके अनकहे शब्दों को मैं खामोश निगाहों से आवाज लगा गया कोई इक पल के लिए यूं लगा मुझे `नि:शब्द´ को खुद से मिला गया कोई देखता रहा पिछले पायदान पर खड़ा मैं दूर से ही हाथ हिला गया कोई दिया कुछ भी नहीं था उसे मैंने जाते-जाते मीठी मुस्कान लौटा गया कोई
कुछ लोग
जलती ख्वाहिशों की आंच लिए कुछ लोग जेहन में चंद सांच लिए कुछ लोग बेगुनाही पर भी सजा पाते कुछ लोग अनकहे रिश्तों को भी निभाते कुछ लोग जर्जर-पुराने मकान से खड़े कुछ लोग झूठ के मोतियों से जड़े कुछ लोग जिंदगी का पल-पल जीते कुछ लोग चंद पलों में जिंदगी जी-जाते कुछ लोग
अनजान छुअन और छुईमुई
दर्द बोलता ही नहीं सुनाई क्या देगा आंसू टपकता ही नहीं दिखाई क्या देगा दर्द भी ऐसे-जेहन में रम चुके हैं सूखे आंसू भी गालों पर जम चुके हैं मैंने सोचा-खिलेगी-महकेगी लाल गुलाब की तरह मगर अनजान छुअन से सिमट गई वो छुईमुई गीले पन्ने लिए इक रहस्यमयी किताब की तरह ये पैसों की दौड़, आगे निकलने की होड़ पीछे आई छोड़, सपनों और सोच का गठजोड़ क्यों यह समंदर उठा है चांद निगलने को मगर हारकर डूब गया अपने ही भीतर को वो थी भागती-दौड़ती-हांफती जिंदगी के पक्ष में मगर अब छोड़ भागना चाहती है बीच लक्ष्य में अंतरद्वन्द्व की सिसकियां भरती है अनजाने में मां सी दोस्त को डरती है बताने में अब उसे इत्तेफाक नहीं बालों को सुलझाने में क्योंकि अभी उलझी है वक्त को सुलझाने में
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